Sunday, December 19, 2010

इस पल में ही रहना है

इस पल में ही रहना है

क्योंकर मैं उस कल के बारे में सोचूँ ,
जो बीत गया और फिर कभी आएगा ही नहीं?
और क्यों मैं अपने आज तो बर्बाद करूँ,
सोचकर उस कल के बारे में,
जो अभी तक आया ही नहीं?
बस ये पल ही तो मेरा है,
जो अभी तक बीता नहीं,
मुझे बस अब इसी में रहना है l

(written sometime in 2006)

Wednesday, September 22, 2010

आँख नम है, मगर
पलक झपकने नहीं देता दिल ये हाय
डरता है यह ये सोच, कि कहीं आँसू बनकर
याद उनकी बह न जाये.

Monday, September 20, 2010

उनकी निगाहों में...

मेरे कमरे में एक लम्बा-सा आइना है.
आते-जाते, चाहे-अनचाहे, जिसमे मैं
अपना प्रतिबिम्ब दिन में कई बार देखती हूँ.

आज फिर अकस्मात् दर्पण में खुद को देखा.
चपटी नाक और मोटे गालों के सिवाय
और कुछ नज़र ही नहीं आया.
हमेशा कि तरह मैंने फिर सोचा
कितनी साधारण-सी लगती हूँ मैं.
कुछ भी तो ख़ास नहीं है
मेरे इस सामान्य चेहरे में...

पता नहीं उन्होंने क्या देखा मुझमें
जो यूं घंटों निहारते रहतें हैं
अपनी खूबसूरत नीली आँखों से
मेरी मामूली सांवली सूरत को
मानो ऐसी मोहिनी मूरत
कभी देखी ही न हो !

अगर यह साँचा आइना न होता
तो मैं भी धोखा खा जाती
और अपने आप को सुन्दर समझ बैठती...

अचानक, मुझ पर गढ़ी उनकी एकटक
भावुक निगाहों क आभास हुआ
मारे शर्म के पलकें झट झुक गयीं.
और जब उठीं तो आँखों में एक अजीब-सी चमक थी
गालों पर सुर्खी और होटों पर एक हलकी-सी हंसी थी.

फिर सहसा एहसास हुआ,
शायद मुझ में नहीं
सुन्दरता उनकी निगाहों में है !

Sunday, September 19, 2010

यह कैसे दायरे में फँस गयी हूँ मैं?
जितना ही सुलझना चाहूँ, उतना ही उलझ गयी मैं!

Written somewhere in 1988
क्या ज़िन्दगी और क्या मौत है?
मर कर भी जियें, तो ज़िन्दगी
जिंदा रह कर मर जाएँ, तो मौत है

Written somewhere in 1988.

Friday, September 17, 2010

मौत भी कुबूल है, हमें तुम्हारे साथ
यह कैसी बदकिस्मती,
कि ज़िन्दगी भी गवारा नहीं तुम्हे हमारे साथ?

Tuesday, September 14, 2010

इल्तिजा

रात रात भर जाग जाग कर
मैंने तुम्हारे सपने देखें हैं.
सपनों में आकर, मुझको लुभा कर, यूं भरमाकर,
कहाँ तुम चले गए....

हमकदम बन हर कदम तुम मेरे साथ चलो न चलो
बात मैं जो सुनना चाहूं वो कभी कहो न कहो
ज़िन्दगीभर तुम मेरे साथ रहो न रहो
न चाहो मुझे तो फिर कभी मिलो न मिलो
पर यै यार मेरे, तुम इतने भी संगदिल न बनो
कम से कम सपनों में तो आ जाया ही करो...

Tuesday, September 7, 2010

एक हवा का झोंका था वो...

एक हवा का झोंका था वो
जो गालों को सहला गया
फिर जुल्फों को छेड़ गया
और होंटों को सुर्ख कर
साँसों में समां गया.

पल-पल उठती लहरों-सा
झूले में झूलता महबूब-सा
झपकती हुयी पलकों जैसा
मोर-पंख का छुवन है वैसा
हर एक अंग हल्का-सा छूकर चला गया.

क्या सिर्फ एक एहसास था वो
जो तन को चीर मन में उतर गया?
आँखों में नमी, कभी कम न होनेवाली कमी दे गया
लगता था बस अभी अपने आलिंगन में छुपा लेगा
पर कुछ कहने सुनने से पहले चला गया वो.

रुक जाता ठोड़ी देर और
तो अपने बाहों में भर लेती
जितने मृदु चुम्बन उसने दिए
एक एक कर सारे लौटा देती
अपनी चाहत कि शीतल चांदनी से उसके सारे घाव भर देती.

पर ठहरना उसकी फितरत नहीं
एक हवा का झोंका था वो
जो आया, चला गया
न जाने कैसे इतने में ही ज़िन्दगी का हर मायना बदल गया
पर क्या यही कम है कि क्षणभर आ टकरा गया?

Monday, September 6, 2010

एक हवा का झोंखा था वो...

एक हवा का झोंखा था वो
जो गालों को सहला गया
फिर जुल्फों को छेड़ गया
और होंटों को सुर्ख कर
साँसों में समां गया.

पल-पल उठती लहरों-सा
झूले में झूलता महबूब-सा
झपकती हुयी पलकों जैसा
मोर-पंख का छुवन है वैसा
हर एक अंग हल्का-सा छूकर चला गया.

क्या सिर्फ एक एहसास था वो
जो तन को चीर मन में उतर गया?
आँखों में नमी, कभी कम न होनेवाली कमी दे गया
लगता था बस अभी अपने आलिंगन में छुपा लेगा
पर कुछ कहने सुनने से पहले चला गया वो.

रुक जाता ठोड़ी देर और
तो अपने बाहों में भर लेती
जितने मृदु चुम्बन उसने दिए
एक एक कर सारे लौटा देती
अपनी चाहत कि शीतल चांदनी से उसके सारे घाव भर देती.

पर ठहरना उसकी फितरत नहीं
एक हवा का झोंखा था वो
जो आया, चला गया
न जाने कैसे इतने में ही ज़िन्दगी का हर मायना बदल गया
पर क्या यही कम है कि क्षणभर आ टकरा गया?

Monday, June 14, 2010

This is the best rebuff I ever wrote:

Somewhere in 1988-89, I had received a card from a friend in NDA, with these words:

"रोना चाहता हूँ जी भर,
पर रुलाई घोंट लेता यह सोच
कि यह मोती जो गिरेंगे ज़मीन पर
मेरे नहीं, उनकी अमानत हैं"

He was a nice guy. Only not my kind. So had to get across the message without hurting him. This is what I wrote back:
आपके अश्कों के हम नहीं हैं हकदार
उनको बेकार न बहायिएगा
ये आंसू भी काम आयेंगे एक दिन
उनको यूं ही न गंवायिएगा
इन मोतियों को अपने आँचल में समेटने आएँगी कोई
उन्हें फिर आप क्या जवाब दीजियेगा?

Tuesday, April 20, 2010

Random thoughts on a bus from Delhi to Dehradoon, somewhere near Roorkee, on March 21, 1992

Just crossed Roorkee. रास्ते के दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली है | And the path is lined-up with tall or very tall trees. Are they Eucalyptus or are they Fir? Probably Pine. पता नहीं | I am not very good at identifying trees and nor do I know anything much about plant nomenclature and classification.
दूर सुदूर पहाड़ियों तक असीम ज़मीन और खुला आसमाँ | Sometimes, I wonder why go dreaming of Scotland and Vienna, when our own country is so very beautiful. And there is this valley to my right, absolutely dry, filled with soft silt and smooth stones of varied sizes. Surely, there must have been a river here once upon a time. और इसी नदी किनारे कितने मोहब्बत करनेवालों की शामें गुज़री होंगी | कितने सारे वादे किये गए होंगे इन हसीं वादियों में | कितने सारे सपने संजोये होंगे जवान दिलों ने | क्या पता उन शामों की सुबह आई भी या नहीं | क्या पता लोगों ने वादे निभाये या नहीं | क्या पता उनके सपने कभी सच हुए या नहीं | पर कैसे पता चलेगा? वो सब साधारण से लोग होंगे - हमारी-तुम्हारी तरह | और इतिहास के पन्नों में `साधारण' लोगों का ज़िक्र नहीं होता |