Wednesday, September 22, 2010

आँख नम है, मगर
पलक झपकने नहीं देता दिल ये हाय
डरता है यह ये सोच, कि कहीं आँसू बनकर
याद उनकी बह न जाये.

Monday, September 20, 2010

उनकी निगाहों में...

मेरे कमरे में एक लम्बा-सा आइना है.
आते-जाते, चाहे-अनचाहे, जिसमे मैं
अपना प्रतिबिम्ब दिन में कई बार देखती हूँ.

आज फिर अकस्मात् दर्पण में खुद को देखा.
चपटी नाक और मोटे गालों के सिवाय
और कुछ नज़र ही नहीं आया.
हमेशा कि तरह मैंने फिर सोचा
कितनी साधारण-सी लगती हूँ मैं.
कुछ भी तो ख़ास नहीं है
मेरे इस सामान्य चेहरे में...

पता नहीं उन्होंने क्या देखा मुझमें
जो यूं घंटों निहारते रहतें हैं
अपनी खूबसूरत नीली आँखों से
मेरी मामूली सांवली सूरत को
मानो ऐसी मोहिनी मूरत
कभी देखी ही न हो !

अगर यह साँचा आइना न होता
तो मैं भी धोखा खा जाती
और अपने आप को सुन्दर समझ बैठती...

अचानक, मुझ पर गढ़ी उनकी एकटक
भावुक निगाहों क आभास हुआ
मारे शर्म के पलकें झट झुक गयीं.
और जब उठीं तो आँखों में एक अजीब-सी चमक थी
गालों पर सुर्खी और होटों पर एक हलकी-सी हंसी थी.

फिर सहसा एहसास हुआ,
शायद मुझ में नहीं
सुन्दरता उनकी निगाहों में है !

Sunday, September 19, 2010

यह कैसे दायरे में फँस गयी हूँ मैं?
जितना ही सुलझना चाहूँ, उतना ही उलझ गयी मैं!

Written somewhere in 1988
क्या ज़िन्दगी और क्या मौत है?
मर कर भी जियें, तो ज़िन्दगी
जिंदा रह कर मर जाएँ, तो मौत है

Written somewhere in 1988.

Friday, September 17, 2010

मौत भी कुबूल है, हमें तुम्हारे साथ
यह कैसी बदकिस्मती,
कि ज़िन्दगी भी गवारा नहीं तुम्हे हमारे साथ?

Tuesday, September 14, 2010

इल्तिजा

रात रात भर जाग जाग कर
मैंने तुम्हारे सपने देखें हैं.
सपनों में आकर, मुझको लुभा कर, यूं भरमाकर,
कहाँ तुम चले गए....

हमकदम बन हर कदम तुम मेरे साथ चलो न चलो
बात मैं जो सुनना चाहूं वो कभी कहो न कहो
ज़िन्दगीभर तुम मेरे साथ रहो न रहो
न चाहो मुझे तो फिर कभी मिलो न मिलो
पर यै यार मेरे, तुम इतने भी संगदिल न बनो
कम से कम सपनों में तो आ जाया ही करो...

Tuesday, September 7, 2010

एक हवा का झोंका था वो...

एक हवा का झोंका था वो
जो गालों को सहला गया
फिर जुल्फों को छेड़ गया
और होंटों को सुर्ख कर
साँसों में समां गया.

पल-पल उठती लहरों-सा
झूले में झूलता महबूब-सा
झपकती हुयी पलकों जैसा
मोर-पंख का छुवन है वैसा
हर एक अंग हल्का-सा छूकर चला गया.

क्या सिर्फ एक एहसास था वो
जो तन को चीर मन में उतर गया?
आँखों में नमी, कभी कम न होनेवाली कमी दे गया
लगता था बस अभी अपने आलिंगन में छुपा लेगा
पर कुछ कहने सुनने से पहले चला गया वो.

रुक जाता ठोड़ी देर और
तो अपने बाहों में भर लेती
जितने मृदु चुम्बन उसने दिए
एक एक कर सारे लौटा देती
अपनी चाहत कि शीतल चांदनी से उसके सारे घाव भर देती.

पर ठहरना उसकी फितरत नहीं
एक हवा का झोंका था वो
जो आया, चला गया
न जाने कैसे इतने में ही ज़िन्दगी का हर मायना बदल गया
पर क्या यही कम है कि क्षणभर आ टकरा गया?

Monday, September 6, 2010

एक हवा का झोंखा था वो...

एक हवा का झोंखा था वो
जो गालों को सहला गया
फिर जुल्फों को छेड़ गया
और होंटों को सुर्ख कर
साँसों में समां गया.

पल-पल उठती लहरों-सा
झूले में झूलता महबूब-सा
झपकती हुयी पलकों जैसा
मोर-पंख का छुवन है वैसा
हर एक अंग हल्का-सा छूकर चला गया.

क्या सिर्फ एक एहसास था वो
जो तन को चीर मन में उतर गया?
आँखों में नमी, कभी कम न होनेवाली कमी दे गया
लगता था बस अभी अपने आलिंगन में छुपा लेगा
पर कुछ कहने सुनने से पहले चला गया वो.

रुक जाता ठोड़ी देर और
तो अपने बाहों में भर लेती
जितने मृदु चुम्बन उसने दिए
एक एक कर सारे लौटा देती
अपनी चाहत कि शीतल चांदनी से उसके सारे घाव भर देती.

पर ठहरना उसकी फितरत नहीं
एक हवा का झोंखा था वो
जो आया, चला गया
न जाने कैसे इतने में ही ज़िन्दगी का हर मायना बदल गया
पर क्या यही कम है कि क्षणभर आ टकरा गया?